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Sunday 29 August, 2010

(Abut Namaz on Road ) सड़क पर नमाज़ पढ़ कर लोगों को तकलीफ न दें

शरीफ़ साहब द्वारा  "वेदकुरान" के लेख (Abut Namaz on Road ) पर दी गयी टिपण्णी से असहमत होकर लिख रहा हूँ,
http://vedquran.blogspot.com/2010/08/about-namaz-on-road-anwer-jamal.html

Sharif Khan said...
आप ने भी क्या खूब कहा है. बड़ी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढने का मशवरा देकर समझ लिया की मसला हल हो गया लेकिन आप यह भूल गए की बड़ी मस्जिद की कैपेसिटी के मुताबिक ही लोग आयेंगे आप पहले पहुंचेंगे तो दूसरे बाद में आने वाले लोग रह जायेंगे लिहाज़ा कुछ ऐसे लोग ज़रूर बाकी रहेंगे जिनको अंदर जगह नहीं मिलेगी और उनको बाहर नमाज़ पढनी पड़ेगी. हमने अक्सर यह देखा है कि मस्जिद के बाहर नमाज़ पढने कि स्थिति में गैर मुस्लिम भाई पूरा सहयोग करते हैं और किसी को कोई शिकायत नहीं होती. इसी तरह से भगवती जागरण तो अक्सर पूरी सड़क बंद करके होता है और पूरी रात चलता है परन्तु मुस्लिम भाई कभी इसकी शिकायत नहीं करते. इस प्रकार के आयोजनों से परस्पर प्रेम पैदा होता है न कि नफरत.
Sharif Khan said...
हमारे नगर में हिन्दुओं के मोहल्ले में स्थित मस्जिद में जुमे की नमाज़ में अक्सर बाहर नमाज़ पढ़ लेते हैं किसी को कोई ऐतराज़ नहीं होता. रमजान के महीने में रात को तरावीह पढने के समय में बिजली न होने पर अक्सर परेशानी होती थी तो वहां एक हिदू भाई ने अपने घर के जेनेराटर की सुविधा मस्जिद को उपलब्ध करा दी. हमारे पड़ोस में कुछ त्योहारों पर आधी सड़क घेर कर भंडारा लगाया जाता है जिसका किसी ने ऐतराज़ नहीं किया बल्कि उनको मुस्लिम भाइयों का पूरा सेयोग मिलता है. सामने चूंकि मस्जिद है इसलिए पूरी आवाज़ से होने वाली रेकोर्डिंग नमाज़ के वक़्त बंद कर दी जाती है. जब मैरिज होमों कस चलन नहीं था तब आधी सड़क घेर कर शामयाना लगा दिया जाता था और उसी में विवाह की पूरी रस्में और भोज आदि का आयोजन होता था लेकिन किसी को ऐतराज़ नहीं होता था. फ़िज़ूल की वाहवाही लूटने की खातिर आप ऐसे शागुफे न छोडें और हदीस का सहारा लेकर लोगों को न बहकाएं.


शरीफ़ साहब आपकी "वेदकुरान" के लेख (Abut Namaz on Road ) पर दी गयी टिपण्णी से असहमत होकर लिख रहा हूँ, "हज़रत इब्ने उमर ( रज़ि० ) फ़रमाते हैं कि अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने 7 जगहों पर नमाज़ पढ़ने से मना फ़रमाया है। (1) नापाक जगह ( कूड़ा गाह ) (2) कमेला ( जानवरों को ज़िबह करने कि जगह ) (3) क़ब्रिस्तान (4) सड़क और आम रास्तों में (5) गुसल खाना (6) ऊंट के बाड़े में (7 ) बैतुल्लाह कि छत पर " ( तिर्मज़ी) इस हदीस में नमाज़ का ज़िक्र किया गया है ( जुमे की नमाज़ का भी) एक और हदीस है कि फैसले के दिन मोमिन के तराज़ू में जो अमल रखे जाएँगे, तो उनमें सबसे वज़नी अमल ( अखलाकी अमल ) होगा। सड़क या आम रास्ता रोक कर किसी भी तरह की इबादत करना कैसे अखलाकी अमल हो सकता है? हमारे देश में सड़कों तक दुकान लगाना, सड़क पर ठेला लगाना आदि-आदि को अतिक्रमण कहा जाता है और उनके ख़िलाफ़ अभियान चलाया जाता है, हालंकि वे लोग भी अपनी रोज़ी रोटी कमाने की खातिर करते हैं कोई गुनाह नहीं करते फिर भी उनके इस कार्य से आम आदमी के मानवाधिकार का हनन होता है, और मानवाधिकार की बुनियाद इस्लाम है, इससे यह साबित होता है की सड़क रोक कर नमाज़ पढ़ना चाहे एक बार हो या अनेक बार अखलाक़ी अमल नहीं हो सकता। और इस्लाम का प्रचार करना कोई वाहवही लूटना नहीं होता। हमारे लिए कुरआन और हदीस की दलील हुज्जत है, किसी आदमी का निजी विचार या अमल नहीं। अपने विचार के हक में कुरआन और हदीस से दलील देना आपकी दिनी ज़िम्मेदारी है। यहाँ मेरा मक़सद आपके दिल को किसी तरह की ठेस पहुँचाना नहीं है। आप मेरे बुज़ुर्ग हैं आपका एहतराम करना मेरा फ़र्ज़ है ।

Wednesday 18 August, 2010

पशु बलि पर पाप-पुण्य का हिसाब


भले ही विज्ञान ने प्रकृति के तमाम रहस्य सुलझा लिए हों लेकिन ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए जीवों की बलि देने की परंपरा पर तर्कों का अंकुश नहीं चल पा रहा है आज भी देश के तमाम इलाकों में आराध्य को प्रसन्न करने के लिए बलि प्रथा बदस्तूर जारी है। नवरात्र पूजन के दौरान पशुओं की बलि देने की बात तो अक्सर सुनने में आती है लेकिन कुशीनगर जिले में सावन महीने में भी पशु बलि की परंपरा काफी दिनों से चली रही है। राजस्थान के मेवाड़ इलाके से सैकड़ों साल पहले रामकोला कस्बे में बसे ठाकुरों द्वारा सामूहिक रूप से आज भी अपने पारिवारिक मंदिर में पशु बलि दी जा रही है ऐसे उदाहरण अनेक हैं इसी प्रथा के संदर्भ में लखनऊ से यौगेश मिश्र की एक रिपोर्टः पशु बलि पर पाप-पुण्य का हिसाब
सनातन धर्म के अभ्युदय के साथ ही अपने इष्टदेवों को प्रसन्न करने के लिए बलि देने की परंपरा की शुरुआत हुई आज जब विज्ञान प्रकृति के हर रहस्य के करीब पहुंच रहा है फिर भी अंधविश्वास से भरी यह कुरीति प्रचलन में है यह दीगर है कि बलि समर्थक और विरोधियों ने इस प्रथा को तर्क और अंधविश्वास के ऐसे दो खेमों में बांट दिया है जहां हर बार तर्क जीतता है पर अंधविश्वास उसके बाद भी जारी रहता है हालांकि हाल-फिलहाल पशु-प्रेमियों की एक नई जमात ने इस परंपरागत अंधविश्वास को लेकर जो विरोध के स्वर मुखर किए हैं, उन्होंने भी इस बलि प्रथा की राह में कई अवरोध खड़े किए हैं यही वजह है कि अब बलि प्रथा ने नई शक्ल अख्तियार की है जिसमें अघोरी संत भी अब कद्दूू, जायफल, नारियल और भथुआ सरीखे फलों और सब्जियों की प्रतीक स्वरूप बलि देकर काम चला रहे हैं बावजूद इसके यह कहना बेमानी होगा कि बलि प्रथा पर लगाम लग गई है आज भी देश के तमाम इलाकों में अपने आराध्य को प्रसन्न करने के नाम पर बलि प्रथा बदस्तूर जारी है यह प्रथा कब खत्म हो पाएगी, यह कहना बेमानी है क्योंकि हिंदुत्व के अलंबरदारों में शुमार बजरंग दल के लोग आज भी इसके पैरोकार हैं।
नवरात्र पूजन के दौरान पशुओं की बलि देने की बात तो अक्सर सुनने में आती है लेकिन कुशीनगर जिले में सावन महीने में भी पशु बलि की परंपरा लंबे समय से चली रही है राजस्थान के मेवाड़ इलाके से सैकड़ों साल पहले कुशीनगर के रामकोला कस्बे में बसे ठाकुरों द्वारा सामूहिक रूप से आज भी अपने पारिवारिक मंदिर में पूरे उत्साह के साथ पशु बलि देने की पुरानी प्र्रथा का पालन किया जा रहा है वैसे तो जिले के खन्हवार पिपरा, कुलकुला देवी और फरना मंदिर समेत कई काली मंदिरों पर नवरात्र के अंतिम दिनों में स्थानीय निवासियों में पशु बलि देने की परंपरा है पर रामकोला कस्बे में बसे मेवाड़ के ठाकुर नवरात्र के साथ-साथ सावन महीने में भी पशु बलि की पुरानी परंपरा का निर्वाह करते रहे हैं सामूहिक बलि के लिए पाड़ा (भैंस का नर बच्चा) लाया जाता है पूजा-पाठ करने के उपरांत तलवार की तेज धार से एक ही वार में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाता है बाद में उस पशु के मूल्य का कपूर मंदिर में जलाकर प्रायश्चित किया जाता है हालांकि इस बीच कई परिवारों ने खुद को बलि प्रथा से दूर किया है, बावजूद इसके यह धार्मिक प्रथा बदस्तूर जारी है
गोरखपुर मुख्यालय से बीस किलोमीटर दूर प्रसिद्ध तरकुलहा देवी मंदिर पर बकरे की बलि देने की परंपरा लंबे समय से चली रही है चैत्र रामनवमी मई-जून में यहां सवा महीने मेला लगता है सामान्य दिनों में यहां 200 से 300 बकरों की बलि दी जाती है पर मेले के दौरान यह संख्या बढ़कर हजार तक पहुंच जाती है बलि के अर्थशास्त्र को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि बलि की ठेकेदारी के लिए सालाना दस लाख की बोली लग रही है ठेकेदार बलि देने वालों से बकरे का मुंह, चमड़ा दो किलोग्राम मांस वसूलता है मान्यता है कि अंग्रेजों से लोहा लेने वाले शहीद बंधु सिंह मां तरकुलहा के अनन्य भक्त थे वे जब किसी अंग्रेज को मार डालते थे तो उसका खून मां तरकुलहा को चढ़ाते थे अंग्रेजों ने उनको फांसी गोरखपुर के बंसतपुर में दी फांसी पर लटकने के बाद शहीद के जैसे ही प्राण पखेरू उड़े वैसे ही मां तरकुलहा देवी के समक्ष खड़ा एक तरकुल का पेड़ जमींदोज हो गया कहा जाता है कि पेड़ जहां से टूटा वहां से कई दिनों तक खून टपकता रहा तभी से श्रद्धालुजन मां का आशीर्वाद पाने के लिए दूरदराज से यहां जुटने लगे मनौती पूरी होने पर मां को खुश करने के लिए बकरे की बलि देने का चलन शुरू हुआ
विश्व प्रसिद्ध शक्तिपीठ विंध्याचल भी देश के अन्य शक्तिपीठों की तरह बलि की प्रथा से अछूता नहीं है देवी धाम में प्रतिदिन बलि अनिवार्य है स्थानीय पुरोहित-पंडों के अनुसार मां काली को "रक्त" अति प्रिय है इसलिए यजमान अपनी मन्नत पूरी होने पर बलि देते हैं देवी धाम में प्रतिदिन एक बकरे को प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है। बकरों की बलि श्रद्धालुओं की ओर से होती है लेकिन यदि कोई श्रद्धालु बलि देने के लिए उपस्थित नहीं हुआ तो पारीवाल पंडे की ओर से बलि चढ़ाया जाना अनिवार्य होता है स्थानीय पंडा रत्नाकर मिश्र बताते हैं, "आज से चालीस साल पहले बलि प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था पर इसका परिणाम यह हुआ कि पूरे विंध्याचल क्षेत्र के गांव में अनहोनी घटनाएं होने लगीं अतः बलि पुनः चालू की गई जो आज भी नियमित रूप से जारी है यह बलि मां काली को समर्पित होती है "
विकास के पैमाने पर कानपुर बहुत आगे ठहरता है समृद्धि भी यहां खूब है बावजूद इसके यहीं के कैलाश मंदिर स्थित छिन्नमस्तिके देवी की पीठ में नवरात्र के तीन दिनों में जब मंदिर के पट खुलते हैं तब पशु बलि की प्रथा है सप्तमी, अष्टमी और नवमी को खुलने वाले इस मंदिर के बारे में लोग बताते हैं कि 1865 तक यहां नरबलि की भी परंपरा रही है यहां के प्रबंधक इन दिनों जारी बलि प्र्रथा के पीछे कोई ठोस वजह तो नहीं बता पाते हैं लेकिन यह कहकर पल्ला झाड़ना चाहते हैं कि सदियों से जो चला रहा है, उसमें कुतर्क धर्मसम्मत नहीं है पिछले चालीस सालों से मंदिर का कामकाज देख रहे के.के. तिवारी कहते हैं, "धर्म और आस्था के बीच किसी को आने की अनुमति नहीं है " कानपुर के ही बंगाली मोहल्ला का 300 वर्ष पुराना काली मंदिर बलि देने की परंपरा को आज तक बनाए हुए है यहां साल में एक हजार से अधिक पशुओं की बलि दी जाती है दीपावली और होली की प्रतिपदा को यहाँ बड़ा मेला लगता है श्रद्धालु अपनी मन्नतें पूरी होने की लिए बलि देते हैं
आज़म गढ़ पालहमहेश्वरी धाम पर मुंडन संस्कार के दौरान बकरे की बलि देने की प्रथा है धाम के चरों ओर तकरीबन दस किलोमीटर के बीच पड़ने वाले गांवों के बाशिंदे इस प्रथा का पालन करते हैं मुंडन भोज में रिश्तेदारों और परिचितों को प्रसाद का तौर पर इसी बकरे का मांस परोसा जाता है प्रथा के मुताबिक इस क्षेत्र की लड़कियां चाहे जहाँ भी ब्याही हों, अगर उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है तो उसका मुंडन संस्कार यहीं कराती हैं और बकरे की बलि देती हैं मान्यता है कि इससे बच्चे दीर्घायु होते हैं
देवीपाटन मंडल में पशु बलि की परंपरा अब भी कायम है कई मंदिरों में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए सूअर और बकरे की बलि दी जाती है गौंडा जिले के दर्जनों गांव में बसे गौरहा बिसने क्षेत्रियों के यहाँ शारदीय नवरात्र में देवी को खुश करने के लिए बकरे की बलि दी जाती है उसके मांस को प्रसाद के र्रोप में पका कर खाया जाता है इसी प्रसाद को खाकर लोग व्रत तोड़ते हैं बलरामपुर में स्थित देवीपाटन मंदिर में नवरात्र में पशु बलि का चलन आज भी जारी है नवरात्र भर रोज़ यहाँ देवी को प्रसन्न करने के और अपनी मनौती पूरी होने की ख़ुशी में सैंकड़ों पशुओं की बलि दी जाती है श्रावस्ती जिले में बलि प्रथा भींगा मुख्यालय स्थित कलि मंदिर में बीस साल पहले तक कायम थी हालाँकि तमाम विरोधों और सुधारवादी लोगों के समझाने- बुझाने के बाद बीस साल से इस मंदिर में बलि पूरी तरह बंद है, पर अब लोग बकरे का कान काटकर देवी के स्थान चढ़ा उसे छोड़ देते हैं भारत-नेपाल सीमा से लगे नेपाल के बन्केश्वरी मंदिर में पशु बलि प्रथा आज भी देखि जा सकती है जौनपुर जनपद मुख्यालय से महज़ तीन किलोमीटर दूर स्थित मां शीतला धाम मंदिर में बकरा चढ़ाए जाने की परम्परा आज भी कायम है मन्नत मांगने वाले अपने साथ बकरा लाते हैं मंदिर में उसका कान कट कर देवी को चढाने के बाद बकरा अपने साथ ले जाते हैं घर पर बलि देकर उसका मांस प्रसाद के रूप में बाँट कर खाया जाता है
बुंदेलखंड के ललितपुर और झाँसी जिले में लगभग डेढ़ लाख की आबादी वाला सहरिया समुदाय अपने कुल देवता को खुश करने के लिए पशु बलि प्रथा पर अमल करता है भादो माह की पंचमी को इस समुदाय के लोग अपनी जाती के धार्मिक गुरु पटेल के माध्यम से बकरे और मुर्गे की बलि देते हैं बलि की मार्फ़त वे परिवार और पशुओं को बीमारी से मुक्त रहने की कामना करते हैं इसी प्रकार दीवाली से दो दिन पहले धनतेरस के दिन पशुधन के रूप में अपने कुलदेवता को सहरिया समुदाय के लोग बकरा अर्पित करते है यह दोनों पर्व इस समुदाय में बड़े जलसे के रूप में मनया जाता है इस दिन सहरिया समुदाय के लोग रात भर नाचते-गाते और मदिरा पीते हैं इसी जिले के मंडावर इलाके में स्थित एक माजर पर गुरुवार को मुर्गे की बलि चढाई जाती है बढापुर इलाके में स्थित कालूपीर बाबा के यहाँ वाल्मीकि समाज के लोग सोमवार के दिन सूअर का मांस प्रसाद के रूप में चढाते हैं बदायूं के उसहैत का बाबा कालसेन का मंदिर भी कुछ इसी तरह की विचित्रताओं से भरा हुआ है शराब और जानवर की बलि के बिना इस मंदिर की पूजा अधूरी मानी जाती है तकरीबन एक हज़ार साल से अधिक पुराने इस मंदिर के पुजारी गोविन्द राम शर्मा बताते हैं कि जब तक बाबा कालसेन के नाम पर शराब नहीं चढ़ी जाती, बलि नहीं दी जाती तब तक मनौती पूरी नहीं हो सकती
बीते दिनों उत्तराखंड के बुनखल में पशु बलि कि प्रथा रोकने के लिए पहुंची मेनका गाँधी ने ' नई दुनिया ' से कहा किउत्तर प्रदेश से बलि प्रथा की हमें कोई रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई है पौड़ी गढ़वाल में ज़रूर बलि के कई केंद्र और पर्व चिन्हित हुए है बुनखल में मैं राज्य के गृह और पंचायत राज सचिव कोलेकर खुद गयी थी वहां लोगो समझाया गया है सरपंचों से कहा गया है कि बड़े-बूढों को बुलाकर राय-मशविरा किया जाए , लोगों को समझाया जाए उन्होंने उम्मीद जताई कि जल्दी ही इस पर लगाम लग सकेगी
लेकिन पशु बलि के मामले को लेकर बजरंग दल के संयोजक प्रकाश शर्मा ने बातचीत में कहा कि तंत्र विद्या में बलिदेने का महत्व शास्त्रों में भी वर्णित है क्यों और कैसे, इसे लेकर बहस कि गुंजाईश हमेशा रहती है यह धर्म से जुड़ा मामला है परम्पराएं आगे चल कर धर्म का रूप धारण कर लेती हैं आप उनसे पूछिए जो एक दिन बकरीद में अरबों पशुओं कि बलि करते हैं पर इसके लिए कोई स्वयंसेवी संगठन या पशु प्रेमी आगे क्यों नहीं आता है हालाँकि वह यह कहने से गुरेज़ नहीं करते हैं कि समय के साथ बलि प्रथा में धीरे-धीरे कमी आई है
समर्थन के साथ विरोध भी
हाल-फिलहाल बलि प्रथा की सुर्खियों की वजह उत्तराखंड के बुनखल में हुई पशु बलि और इसे लेकर विरोध के स्वर कुछ इस कदर मुखर किए कि एक बार फिर यह कुरीति चर्चा का सबब बन बैठी उत्तराखंड में कई ऐसे मेले और त्योहार हैं जिनमें बलि का चलन है गढ़वाल भर में आयोजित होने वाले अधिकांश मेले ऐसे ऐतिहासिक आख्यानों से भरे पड़े हैं परंपरा के मुताबिक इन आयोजनों में पशुओं की बलि देने का रिवाज है ऐसा ही एक मेला बूंखाल मेला है इस मेले में सैकड़ों बकरों समेत नर भैसों की जान शक्ति उपासना के नाम पर ली जाती है गढ़वाल में मेलों को अठवाड़े के नाम से भी जाना जाता है गढ़वाल में बलि प्रथा की बात की जाए तो अठवाड़े से ही इसका चलन शुरू होता है हालांकि तमाम मेलों में बलि प्रथा बंद कराई जा चुकी है लेकिन बूंखाल में यह क्रूर प्रथा आज भी कायम है बीते साल सामाजिक संगठनों और प्रशासन की जद्दोजहद के बाद नब्बे नर भैसों और हजारों बकरों की बलि चढ़ाई गई थी राज्य सरकार ने पशु बलि अवैध घोषित कर रखी है लेकिन इस मेले में इसे रोकने की अभी तक कोई सफल कोशिश दिखाई नहीं देती है प्रशासन यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि जनजागरण के प्रयास किए जा रहे हैं धार्मिक प्रथा पर बलपूर्वक रोक नहीं लगाई जा सकती बिजाल संस्था ने इस क्रूर प्रथा के खिलाफ सबसे मुखर रूप में आवाज बुलंद की है इन्हीं के चलते मेला क्षेत्र में धारा 144 लागू करनी पड़ी जबकि ठीक इसके उलट बजरंग दल ने पौड़ी के जिलाधिकारी को ज्ञापन देकर पशु क्रूरता कानून 1960 की धारा-28का हवाला देते हुए मेले में धारा-144 लगाए जाने को गैर कानूनी बताया गौरतलब है कि धारा-28 के अंतर्गत धार्मिक अनुष्ठानों के लिए प्रतिबंधित पशुओं को छोड़ अन्य पशुओं की बलि कानूनन अपराध नहीं है बजरंग दल के संयोजक प्रकाश शर्मा ने कहा कि अन्य धर्मों के त्योहारों में जब पशुबलि होती है तन यह संस्थाएं क्यों मूकदर्शक बनी रहती हैं
धर्म ही आधार है बलि का
बलि प्रथा का चलन सिर्फ धार्मिक आधार पर ही जीवित है पूरी तौर से यह कहना गलत होगा देवी मंदिरों और धार्मिक आयोजनों से अधिक सुर्खियां बलि प्रथा को तांत्रिकों के चलते मिली हैं हर साल हर इलाके में कोई कोई तांत्रिक बलि की छोटी-बड़ी घटना इतनी सुर्खियां बटोर लेती है कि लोग हिल जाते हैं बावजूद इसके इस पर नियंत्रण के लिए अभी तक कोई ठोस पहल नहीं दिखी है आमतौर पर तांत्रिक अनुष्ठानों में उल्लू और चमगादड़ की बलि चढ़ाने का चलन है दीवाली की रात इन पक्षियों के लिए काल की रात होती है और इनकी मुंह मांगी कीमत भी इनके शिकारियों को तांत्रिकों से मिलती है दीवाली पर उल्लुओं की बलि देने की परंपरा पूर्वोत्तर में पाई जाती है कोलकाता इसका सबसे बड़ा केंद्र है टोटके के मुताबिक इससे तंत्र-मंत्र में जादुई शक्ति मिलती है तंत्र-मंत्र में विश्वास करने वालों का मानना है कि दीवाली पर वशीकरण, मारन, स्तंभन, उच्चाटन एवं सम्मोहन के दौरान उल्लुओं को हवन कुंड के ऊपर उलटा लटका दिया जाता है दीवाली की रात उन्हें मारकर नाखून, पंख एवं चोंच नोचकर उस व्यक्ति के घर में फेंक दिया जाता है जिस घर पर टोटका करना होता है इस विधि को अभिसार भी कहते हैं एक तांत्रिक के मुताबिक उल्लू के खून को मिठाई में खिलाने से जबर्दस्त सम्मोहन किया जा सकता है पर तंत्र में बलि ने इतना वीभत्स रूप धारण कर लिया है कि वह नर बलि तक जा पहुंची है
विश्व प्रसिद्ध शक्तिपीठ विंध्याचल भी देश के अन्य शक्तिपीठों की तरह बलि की प्रथा से अछूता नहीं है। देवी धाम में प्रतिदिन बलि अनिवार्य है
भाजपा सांसद मेनका गांधी लंबे समय से पशुओं के अधिकारों के पक्ष और भेड़ों, बकरों, भैंसों एवं अन्य जानवरों की बलि देने के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करती रही हैं पीपुल फॉर एनीमल नामक संस्था चलाने वाली मेनका गांधी के अनुसार वह जानवरों के हक के लिए आवाज बुलंद करती हैं जिनकी भगवान के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है उनका मानना है कि भगवान के नाम पर जारी बलि जैसी प्रथा से सभ्य समाज को तौबा कर लेना चाहिए समय बदल गया है लोगों को पशुओं से प्रेम करना चाहिए पशुओं की हत्या करने से तो किसी की कोई परेशानी कम हो सकती है और ही बीमारी दूर हो सकती है वह बलि प्रथा का समर्थन करने के लिए भाजपा के सहयोगी संगठन बजरंग दल का विरोध करती रही हैं। वह चाहती हैं कि पशुओं की हत्या और उनकी बलि पर रोक लगाने के लिए देश में कड़ा कानून बनना चाहिए
 ( क्रमश: )
साभार- सन्डे नई-दुनिया ( हिंदी साप्ताहिक पत्रिका ) 08 अगस्त से 14 अगस्त 2010
( प्रष्ठ 18 -22 )
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